प्रज्ञा स्थिर होने पर हम खुद को देखने लगते हैं

गहरी बातें समझने के लिए स्पष्ट चिंतन, अधिक ज्ञान ही जरूरी नहीं है, श्रद्धा भी अपना काम करती है। गीता इसका अच्छा उदाहरण है। श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते हुए आज भी अच्छे-अच्छे विद्वान भ्रम में आ जाते हैं, भटक जाते हैं। कभी-कभी तो लगता है गीता में कृष्ण अपनी ही बात का समर्थन करने में जबर्दस्त तर्क दे रहे होते हैं या अपनी कही बात को ही काट रहे होते हैं। नई पीढ़ी गीता पढ़ना चाहती है लेकिन दो कदम चलकर थक जाती है।  

अठारह अध्याय की गीता पहाड़ लगने लगती है। जो गीता पढ़ना चाहते हों और समझ का ऐसा झंझट सामने आ रहा हो, उन्हें पूरी गीता पढ़ने के पहले केवल एक पात्र पढ़ लेना चाहिए। विद्वानों का भी मत है कि इसे गीता का केंद्रीय पात्र मान लिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह है स्थितप्रज्ञ। यह गीता का बिल्कुल मौलिक शब्द है। दूसरे अध्याय के अंतिम अठारह श्लोकों में श्रीकृष्ण ने इसका वर्णन किया है। जिन्हें पूरी गीता उतारने में दिक्कत हो वे केवल स्थितप्रज्ञ का स्वाद ले सकते हैं। 

स्थितप्रज्ञ यानी जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो। बुद्धि के मामले में जब आप स्थिर होंगे तब आप अपने ही जीवन के दृश्य साफ-साफ देख सकेंगे। इसे ही साक्षी भाव कहा गया है। जब आप खुद को देखने लगते हैं तो स्वयं से कट जाते हैं, अपने से तादात्म्य समाप्त हो जाता है। यहीं से मन की रिक्तता आरंभ होती है। इसे निज-दर्शन भी कहा गया है। गीता में कृष्ण अजरुन से यही कह रहे हैं तू दूर खड़े होकर खुद ही करता देख फिर युद्ध और हिंसा दोनों के ही अर्थ बदल जाएंगे।
........... पं. विजयशंकर मेहता