हर आदमी के जीवन में कोई डर जरूर होता है। वह बाहरी आवरण का डर हो या खुद के भीतर का। कुछ बुरा होने या कुछ खोने का डर हमेशा बना ही रहता है। डर दो तरह का होता है। एक तो भौतिक चीजें खो जाने का जो बाहर से दिखाई देती हैं और दूसरा भीतरी डर जो हमें हमेशा आशंकाओं से घेरे रहता है।
हमारी जिन्दगी में डर दो तरह से बना रहता है। पहला होता है हम जो चाहते हैं वह मिल ही जाए। हमारा पूरा व्यक्तित्व चिंतित होता है कि यदि न मिला तो क्या होगा, इसे कहते हैं न मिलने का डर। दूसरा मौका होता है भयभीत रहने का, जो हमारे पास है वो कहीं खो न जाए, उस पर चोरी, लूट या डाका न हो जाए। यह है प्राप्त अप्राप्त दोनों से ही भयभीत रहना। जो लोग महावीर, बुद्ध, ईसा के पास रहे होंगे उन्हें इन दिव्यात्माओं ने जो अनुभूति करवाई थी वैसी ही समझ आज हमें गुरु मिल जाने पर आ जाती है। गुरु मंत्र का सतत् जप हमें एक दिन यह बोध करा देता है कि हमारे पास केवल हम ही होते हैं और न तो इसे कोई चुरा सकता है, लूट सकता है और न ही यह खो सकता है। फिर हम क्यों भयभीत होते हैं। जिस नाम, दाम, प्रतिष्ठा के होने न होने पर हम इतने डरे रहते हैं, सच तो यह है कि इन्हें हमारे रहने न रहने पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
फर्क तो इस बात पर पड़ता है कि हम हमारा होना बचाएं जिसे कोई खरोंच भी नहीं लगा सकता। श्रीराम को जब अचानक राजतिलक के स्थान पर वनवास की घोषणा हुई तो उनके परिवार के लोग, प्रजा, अपने-अपने हिसाब से भयभीत हुई। कैकयी को मनचाहा मिला पर उन्हें भरत का डर बना हुआ था, पता नहीं भरत क्या करेंगे। दशरथ समेत अवध वासियों को न मिलने का डर था कि अब क्या होगा। इस पूरे दृश्य में एकमात्र निर्भय थे श्रीराम। वे जानते थे कि दुनियां जो नहीं है उसका स्मरण करती है और जो है उसका विस्मण कर जाती है। राम के राम होने को न मंथरा मिटा सकती थी नहीं कैकयी हटा सकती और अपने भीतर की इसी शाश्वत, सनातन अनुभूति, विश्वास ने उन्हें चौदह वर्ष वनवास में भी जन-जन का राजा बना दिया। हम भी रहने, खोने का भय छोड़ें और अपने अस्तित्व में बसते हुए निर्भय होकर जीवन बिताएं।