जिम्मेदार है- तंत्र या प्रजा ?

जंगल में बनी रेलवे कॉलोनी और कॉलोनी के सिरे वाला हमारा क्वार्टर...। क्वार्टर से ही लगा गहरा मैदान, जो वर्षा के अलावा बाकी मौसम में खेल का मैदान बन जाता है...। रात के अँधेरे में नशे के शौकीनों का निरापद स्थल बन जाता है।

इस क्वार्टर में शिफ्ट होने के बाद वह हमारी पहली बारिश थी। एक रोज दिन रात को घनघोर पानी बरसा। हमारा क्वार्टर जलमहल बन गया और मैदान झील बन चुका था। सड़क कहीं नजर नहीं आ रही थी। पुलिया के दोनों छोरों पर दर्शकों एवं रुके राहगीरों की भीड़ थी। मैं भी दुपहरी तक काम में लगे रहने के बावजूद नजारा करती ही रही।

पानी उतरा तो सड़क भी चालू हो गई और मैं भी थक चुकी थी। अभी जाकर लेटी ही थी कि छपाकों और किलकारियों की आवाजों से ध्यान बँटा। खि़ड़की से झाँककर देखा तो ८-१० बच्चे झील में तैराकी का आनंद ले रहे थे।

मटमैला गंदा पानी और नंगधड़ंग बच्चे। बीमार पड़ सकते हैं। कोई दुर्घटना घट सकती है। २-३ बच्चे तो बमुश्किल ३-४ साल के थे। सभी पड़ोस की बस्ती के रहने वाले... लेकिन साथ में कोई भी अपना बड़ा नहीं...। सबके सब पानी में डुबकी ले रहे थे... लेट रहे थे। मेरा जी धक-धक करने लगा।

मन नहीं माना...। उठकर बाहर गई। पहले बच्चों को समझाकर अपने घर जाने को कहा फिर डाँटकर कहा। जब कोई सुनवाई न हुई तो बच्चों को डराया, "अभी फोन करके बुलाती हूँ पुलिस को। वही भगाएँगे तुम्हें।"

मेरी इस धमकी को सुन बच्चे हँसने लगे व कहने लगे, "आंटीजी, पुलिस वाले को एक चाय-समोसे के पैसे देकर हम ही भगा देंगे।"

सुनकर मैं निरुत्तर खड़ी रह गई। बच्चों की इस सोच के लिए कौन जिम्मेदार है- तंत्र या प्रजा?