लोकपाल बिल और आरक्षण

लोकपाल बिल या इसके लिए किए जा रहे तमाम संघर्ष का सीधा मतलब यही हो सकता है कि देश और समाज से भ्रष्टाचार खत्म हो। इसी तरह आरक्षण का अर्थ यह है कि इस समाज में सदियों से जड़ जमा कर बैठी गैरबराबरी खत्म हो। लेकिन अन्ना टीम और यूपीए सरकार द्वारा इन दोनों के लिए अब तक जो-जो कदम उठाए हैं- उनसे सचमुच इन उद्देश्यों की प्राप्ति होगी। और दोनों सचमुच क्या इसी के लिए ये सारे प्रयास कर रहे हैं? कौन नहीं जानता कि पिछड़ों की मदद की जानी जरूरी है, लेकिन यह काम सरकार आरक्षण के ही माध्यम से क्यों करना चाहती है? क्या कभी इस बात की जांच की गई है कि आरक्षण हमारे कमजोर तबकों को अवसरों की समानता नहीं दिला पाया है।

अवसर जो सिर्फ बड़े हो कर ही नहीं, बचपन से मिलने चाहिए। खान-पान और शिक्षा से प्रारंभ हाने वाले इन अवसरों की एक जीवन स्तर तक लंबी फेहरिस्त हो सकती है। आरक्षण दे देने भर से अगर समानता आ जाती तो आज तक यह गैरबराबरी ही खत्म हो चुकी होती। आजादी के इतने बरस बाद भी हमारी राजनैतिक पार्टियों को कमजोर तबके के उत्थान का एक ही उपाय नजर आता है, सिर्फ आरक्षण देने पर विचार करती नजर आती हैं। और इसकी जरूरत भी उसे खासकर यूपी चुनावों से ठीक पहले क्यों महसूस होती है? आरक्षण देना ही था तो इसकी याद उसे पहले क्यों नहीं आई? ठीक इसी तरह अन्ना टीम कहती है कि यदि बिल पास न हुआ तो वह पूरे देश में आंदोलन खड़ा करेगी। लेकिन उसकी वजह से जिस तरह से संसद का कामकाज बार-बार प्रभावित होता रहा और अनेक जरूरी बिल रुक गए, वह तो ठीक नहीं हुआ। क्या यहअपनी मांगें मनवाने का लोकतांत्रिक तरीका है? ये गैरलोकतांत्रिक तरीके कहां से आए?

जिस तरह मुसलमानों को आरक्षण देने की बात ऐन चुनाव से पहले सरकार को याद आई, ठीक वैसे ही यह क्यों हुआ कि अन्ना का समूचा अराजनैतिक दिखता आंदोलन अचानक कांग्रेस विरोध की शक्ल लेने लगा। आरक्षण के मामले पर बीजेपी ही नहीं, अन्ना टीम भी कहना चाहती है,कि यह सरकार का राजनैतिक पैंतरा है। लेकिन अगर यह पूछा जाए कि इन्होंने खुद महिलाओं और पिछड़ों के लिए आरक्षण की बात क्यों नहीं उठाई? तो उनके पास जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार पर अनेक नेता बड़े-बड़े भाषण दे रहे हैं, लेकिन कोई यह नहीं बताता कि अपनी पार्टी या अपने चुनाव क्षेत्र में से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कौन क्या कर रहा है।

साफ है कि भ्रष्टाचार अच्छी नीतियों और नीयत से ही खत्म हो सकता है। और उसी तरह से गरीबी और गैरबराबरी भी। जैसे लोकपाल से सब कुछ ठीक हो जाने की कोई गारंटी नहीं है, वैसे ही आरक्षण दे देने से भी समानता आ ही जाएगी यह मान लेने की कोई वजह नहीं है। दुर्भाग्य से दोनों ही मामलों में नीयत में इमानदारी नहीं दीखती और तरीका लोकतांत्रिक नजर नहीं आता।

साभार : NBT
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